केंद्र की सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों में एकता बनाने की कोशिशें एक बार फिर शुरू हो गई हैं। इस बीच राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि कांग्रेस के बिना कोई भी विपक्षी मोर्चा नहीं बन सकता है। तृणमूल कांग्रेस, सपा और एनसीपी को अपने अहंकार को छोड़कर एक साथ आना होगा। तेजस्वी यादव ने कहा कि बंगाल की जनता ने देश को अच्छा संदेश दिया है। चुनाव नतीजों ने दिखाया है कि जनता सेक्युलरिज्म में विश्वास करती है।
आरजेडी नेता ने कहा कि ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और शरद पवार के साथ उनकी मुलाकात होती रहती है। हर किसी को देश की चिंता है. जल्द ही वो एक रणनीति के साथ सामने आएंगे। तेजस्वी यादव ने माना कि विपक्ष को एक होकर जनता के सामने आना होगा, और लोगों को जनता से कनेक्ट करना होगा ।हमें हर राज्य में एक साथ आना चाहिए और लोगों को बताना चाहिए कि सरकार ने जनता से किए वादे पूरे नहीं किए, और अभी तक हम जनता को इस बारे में समझाने में नाकाम रहे हैं तो इसका मतलब है कि कहीं ना कहीं हमारी गलती रही है. हमें ‘एक’ पार्टी के रूप में कोई नहीं देखता। इसलिए हमें एक अपने अहंकार और मतभेदों को दूर करना होगा कि किस व्यक्ति को क्या पोस्ट मिलेगा। यह सब भूलकर आगे बढ़ना होगा। अगर देश बचा रहेगा तो हमें पद मिलेगा, लेकिन बीजेपी कुछ और समय के लिए सत्ता में बनी रही तो देश ही नहीं बचेगा।
2024 लोकसभा चुनाव में मोदी को चुनौती देने के लिए सभी पार्टियां अपने अपने दांव पेंच लगा रही हैं। लेकिन उन्हें शायद इस बाद का एहसास है बिना साथ आए ये मुमकिन नहीं होगा। क्षेत्रीय पार्टियां पूरा ज़ोर लगा रही हैं, लेकिन कहीं न कहीं वो नैशनल लेवल पर कांग्रेस की मौजूदगी को नकार नहीं सकती। उन्हें मालूम है कि मज़बूत विपक्ष के लिए कांग्रेस के साथ ज़रूरी होगा। तेजस्वी पहले भी एक इंटरव्यू में कह चुके हैं, कि कांग्रेस को भविष्य में किसी भी विपक्षी गठबंधन का आधार बनना होगा, क्योंकि वो एक राष्ट्रीय पार्टी है और बीजेपी के ख़िलाफ़ सीधे तौर पर 200 सीटों पर चुनाव लड़ती है। इसके अलावा शिवसेना नेता संजय राउत ने भी कहा था कि राष्ट्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दलों को एक साथ लाने का काम चल रहा है और यह गठबंधन कांग्रेस के बगैर अधूरा है। राउत ने कहा कि कांग्रेस इस गठबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी जिसका उद्देश्य मौजूदा शासन के खिलाफ एक मजबूत विकल्प देना है।
ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद कहा कि बीजेपी बहुत मजबूत पार्टी है। ऐसे में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों पर और क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस पर भरोसा करना होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि ममता कांग्रेस को साथ लेकर ही क्षेत्रीय दलों की एकता बनाना चाहती हैं।अब सवाल ये है कि जब सभी क्षेत्रीय नेता कांग्रेस का साथ चाहते हैं,तो फिर कांग्रेस हाथ क्यों नहीं बढ़ा रही। ममता बनर्जी के पास तो पूरा रोडमैप तैयार है । ममता के फॉर्मूले को सोनिया गांधी स्वीकार करती हैं तो कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की मर्जी पर निर्भर रहेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस अगर इस फॉर्मूले को मान भी लेती है तो उसे सियासी तौर पर फायदा क्या होगा। कांग्रेस अगर लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दलों की जूनियर पार्टनर की तरह रही तो उसके रिवाइवल की उम्मीदें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी। कांग्रेस अपने भविष्य को लेकर ये जोखिम मोल लेगी ऐसा लगता नहीं है।
दरअसल कांग्रेस भी इन्हीं क्षत्रीय नेताओं को 2024 में एकजुट करके मोदी के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरने की कवायद कर रही है. लेकिन कांग्रेस जूनियर पार्टनर के तौर पर नहीं बल्कि गठबंधन के सबसे मजबूत दल के रूप में इसकी अगुवाई करना चाहती है. कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी भी विपक्ष का चेहरा बनने के लिए सक्रिय हैं. संसद में मोदी सरकार को घेरने के लिए पिछले दिनों में वह विपक्षी दलों की बैठक कर संसद में घेरते नजर आए हैं. हालांकि, विपक्षी दलों के नेताओं का भरोसा राहुल गांधी अभी तक जीत नहीं पाए हैं. पिछले दिनों शिवसेना के सांसद संजय राउत से लेकर तमाम विपक्षी दलों के नेता एनसीपी प्रमुख शरद पवार को यूपीए का अध्यक्ष बनाने की मांग उठा चुके हैं, तो नेतृत्व कांग्रेस के लिए एक बड़ा मुद्दा है।
दूसरे समस्या है क्षेत्रीय स्तर पर कई दलों के एकसाथ खड़े होने की, जैसे उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा एक साथ खड़े नहीं हो सकते। पश्चिम बंगाल में वाममंथी ममता के पीछे खड़े नहीं हो सकते। दिल्ली में कांग्रेस और आप का एक साथ नहीं है। पंजाब में भी हालत ऐसी ही बनी हुई है। दक्षिण के दलों की अपनी अलग राजनीति है। कर्नाटक को छोड़कर ज्यादातर दक्षिणी राज्यों में बीजेपी असरदार नहीं है, इसलिए दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों की अलग प्राथमिकताएं हैं। इसी प्रकार सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की तरफ से ममता को विपक्ष का चेहरा स्वीकार किए जाने की संभावना बेहद कम है।
तीरसी समस्या है विपक्ष की अगुआई की
अगर विपक्ष एकजुटता गो भी जाता है तो उसकी अगुआई किसके हाथों में होगी। यूपीए-वन और यूपीए-टू के दौरान यह मुद्दा आसानी से हल हो गया तो इसलिए क्योंकि तब कांग्रेस सबसे बड़ी और मजबूत पार्टी के रूप में मौजूद थी। मगर पिछले कुछ वर्षों से उसकी ताकत लगातार कम होती गई है। ऐसे में विपक्षी मोर्चे का हिस्से बनने वाली क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस पर हावी होने की कोशिश करें, यह स्वाभाविक ही है। लेकिन क्या कांग्रेस वाकई विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व का दावा आसानी से छोड़ देगी? यों भी, 2024 संसदीय चुनाव में अभी तीन साल बाकी हैं। उससे पहले यूपी, पंजाब, गुजरात जैसे महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं। विपक्षी खेमे में शामिल एसपी और बीएसपी जैसे दलों की ही नहीं, खुद कांग्रेस की हैसियत भी काफी कुछ इन विधानसभा चुनावों के नतीजों से निर्धारित होगी। साफ है, विपक्षी खेमे के नेतृत्व का सवाल आसानी से हल नहीं होने वाला। लेकिन लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की जरूरत सिर्फ चुनावों के लिए नहीं होती। सामान्य दिनों में शासन को जनाभिमुख बनाए रखने के लिए भी उसकी जरूरत होती है।