इस माह के 10वें दिन आशुरा मनाया जाता है।यह इस्लाम मजहब का प्रमुख त्योहार होता है।यह त्योहार 19 या 20 अगस्त को मनाया जा सकता है। इस्लाम मजहब की मान्यता के अनुसार, कहा जाता है कि अशुरा के दिन इमाम हुसैन का कर्बला की लड़ाई में सिर कलम कर दिया था। उनकी याद में इस दिन जुलूस और ताजिया निकालने की रिवायत है।अशुरा के दिन तैमूरी रिवायत को मानने वाले मुसलमान रोजा-नामाज के साथ इस दिन ताजियों-अखाड़ों को दफन या ठंडा कर शोक मनाते हैं।
इस दिन मस्जिदों पर फजीलत और हजरत इमाम हुसैन की शहादत पर विशेष तकरीरें होती हैं। इस्लामिक मान्यता के अनुसार, अशुरा को मोहम्मद हुसैन के नाती हुसैन की शहादत के दिन रूप में मनाया जाता है। इस पर्व को शिया और सुन्नी दोनों मुस्लिम समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से मनाते हैं।यह त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है।इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल यानि मैसेंजर पैगंबर के नवासे थे।
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मोहम्मद साहब के मरने के लगभग 50 सालों के बाद मक्का से दूर कर्बला के गवर्नर यजीद ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया।कर्बला को अब सीरिया के नाम से जाना जाता है।वहां यजीद इस्लाम का शहंशाह बनना चाहता था। इसके लिए उसने आवाम को डराना शुरू किया और गुलाम बनाना शुरू कर दिया। यजीद पूरे अरब पर कब्जा करना चाहता था। लेकिन उसके सामने हजरत मुहम्मद के वारिस और उनके कुछ साथियों ने यजीद के सामने अपने घुटने नहीं टेके और जमकर मुकाबला किया।
इमाम अपने बीवी बच्चों की सलामती के लिए मदीना से इराक की तरफ जा रहे थे तभी कर्बला के पास यजीद ने उन पर हमला कर दिया। इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मिलकर यजीद की फौज का सामना किया। हुसैन के काफिले में 72 लोग थे और यजीद के पास 8000 से अधिक सैनिक थे लेकिन फिर भी उन लोगों ने यजीद की फौज के समाने घुटने नहीं टेके। हालांकि वे इस युद्ध में जीत नहीं सके और सभी शहीद हो गए। किसी तरह हुसैन इस लड़ाई में बच गए। यह लड़ाई मुहर्रम 2 से 6 तक चली।