8 नवंबर को बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी 91 साल के हो गए, उनके जन्मदिन पर प्रधानमंत्री समेत कई नेताओं ने उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं दी। एक समय था जब बीजेपी को लालकृष्ण आडवाणी के नाम से जाना जाता था, उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदार बताया जाता था फिर आखिर क्यों वह कभी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए।

आडवाणी जिन्होंने 1984 में दो सीटों पर सिमट चुकी बीजेपी को मझधार से निकाल कर देश की केंद्रीय राजनीति में लेकर आए और 1988 में पार्टी को पहली बड़ी जीत दिलाई। उस समय उनके द्वारा किए गए संघर्ष का आज भारतीय जनता पार्टी फायदा ले रही है, लेकिन इस समय आडवाणी बीजेपी में अप्रासंगिक से हो गए हैं।

2004 और 2008 की हार से आडवाणी ने पार्टी को बाहर निकाला और जब उनके फल खाने की बारी आई तब उनके नीचे काम कर रहे नरेंद्र मोदी ने उनकी जगह ले ली। राम बहादुर राय के अनुसार 2004 के चुनाव में बीजेपी की हार के बाद पार्टी के सदस्यों ने निर्णय लिया की उन्हें किसी नए नेता की जरूरत है। इसके पीछे की वजह यह भी थी कि कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी राजनीति में अपने कदम रख रहें थे।

नए नेतृत्व में आडवाणी की जगह

उस समय यह सवाल उठा कि क्या लालकृष्ण आडवाणी की नई नेतृत्व में जगह बनती है? उस समय आडवाणी का पार्टी के अंदर जो प्रभाव था उन्होंने इस सोच को वहीं दबा दिया। जब यह सवाल उठे थे उस वक्त आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष वेंकैया नायडू को अपने पद से इस्तीफा देने का आदेश दिया और वह खुद ही पार्टी के अध्यक्ष बन गए।

वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह का कहना है कि ” अगर 1994-95 के राजनीति पर नजर डाले तो उस वक्त बीजेपी की तरफ से आडवाणी प्रधानमंत्री पद के लिए स्वाभाविक उम्मीदवार दिखाई देते थे, जो प्रभुत्व उनका था और किसी भी नेता का नहीं था”। अजय सिंह ने आगे कहा कि आडवाणी ने बहुत सोच समझ कर वाजपेयी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अपनी जगह बैठाया, वह जानते थे कि देश के उन हालातों में ऐसे नेता की जरूरत है।

हम सब जानते है कि आरएसएस का समर्थन पाने के लिए कट्टर होना एक वक्त अनिवार्य होता था लेकिन अगर कोई नेता प्रधानमंत्री के लिए खड़ा होता था तो उसे अपनी छवि बदलनी पड़ती थी ताकि उसे देश भर में स्वीकारा जाए। अजय सिंह के अनुसार अगर आप संवैधानिक पद की दौड़ में शामिल होना चाहते है तो आपको इस हार्डलाइन से विपरीत दिशा में जाना पड़ता है।

दोनों विचारों के बीच सामंजस्य बैठना थोड़ा मुश्किल है, यही दिक्कत उस समय आडवाणी के साथ भी थी और वाजपेयी के साथ भी, लेकिन वाजपेयी की बोलने की क्षमता उन्हें इस परेशानी से निकाल लेती थी। परंतु आडवाणी की यह दिक्कत बनी रही जिसके कारण वह अपनी छवि को साफ ना कर सके।

क्या हुई थी चूक

आडवाणी ने अपनी छवि को सुधारने के लिए और राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए पाकिस्तान में पहुंचकर अली जिन्ना की जमकर तारीफ की, आडवाणी को लगा कि इसकी वजह से उनकी छवि में सुधार होगा। लेकिन यह निर्णय उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चूक बनकर रह गई।

गुजरात दंगो के बाद वाजपेयी चाहते थे कि नरेंद्र मोदी अपने पद से इस्तीफा दे, लेकिन उस वक्त अरुण जेटली और प्रमोद महाजन ने वाजपेयी को शांत किया। ऐसा बताया जाता है कि इसमें आडवाणी का भी अहम रोल था पर यह किया सत्य है यह बताना मुश्किल है। शायद इसी वजह से 2012 तक नरेंद्र मोदी आडवाणी के दाहिने हाथ बने हुए थे।

आरएसएस और आडवाणी

2014 के चुनाव में जब पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा करना चाहा उस वक्त आडवाणी ने काफी विरोध किया, जो यह दर्शाता था की वह खुद भी एक बार प्रधानमंत्री की सीट के लिए खड़ा होना चाहते थे। लेकिन उनके विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लडा गया।

2004 में आरएसएस आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी लेकिन उस वक्त भी हालात ऐसे बने की आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। वाजपेयी को उनके पद से हटाने के लिए भी प्रयास हुए लेकिन ऐसा हो नहीं सका और इस वजह से आडवाणी प्रधानमंत्री बनते-बनते रहे गए।

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