नई दिल्ली: देश की सियासत में बहुत कम बार ऐसा होता है कि किसी विशेष फिल्म की सरकारी स्तर पर बढ़चढ़ कर तारीफ हो या फिर उसकी आलोचना । जबतक कि उस फिल्म का कोई सियासी मकसद न हो। ताजा मामला कश्मीरी पंडितों की हत्या,और पलायन पर आधारित फिल्म कश्मीर फाइल्स से जुड़ा है। इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों के कश्मीर घाटी से भागने की कहानी और उनके दर्द को दिखाया गया है। हालांकि इस फ़िल्म की कहानी को लेकर काफ़ी विवाद चल रहा है। नेताओं से लेकर आम लोग तक इसकी कहानी की सच्चाई पर बंटे हुए दिख रहे हैं।

जिस फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के बारे में सोशल मीडिया पर रोजाना बहश हो रही हैं, जिसमें सरकार के साथ साथ विपक्षी दल के नेता भी शामिल है।सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस फिल्म पर रोक लगाए जाने का मुद्दा उठाया है। इन लोगों का आरोप है कि इस फिल्म का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है। इन सबके बीच कश्मीर और कश्मीरी पंडितों की हमेशा बात करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी इस फिल्म के बहाने तत्कालिन सरकार और कांग्रेस पर निशाना साधा है। और कहा है कि विपक्षी दल तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है। लेकिन सच तो ये है कि तत्कालिन सरकार द्वारा जानबुझकर देश और समाज से कश्मिरियों के दर्द, हत्या और पलायन की घटना को छुपाया गया। नहीं तो क्या कारण है कि 1989-90 की पलायन की धटना से पहले 1984 की सिख दंगा के बारे में सबको पता है। कि कैसे सिखो के गर्दन में टायर जलाकर उसकी नृशंस हत्या हुई थी।

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हत्या और दंगा के आरोपियों की पहचान भी हुई। तो वही तीन दिसंबर, 1984 को भोपाल की गैस त्रासदी जो पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना है। सबको जानकारी है, कि कैसे आधी रात के बाद सुबह यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से निकली जहरीली गैस में हजारों लोगों की मौत हो गई थी। मरने वालों की संख्या को लेकर मदभेद तो हो सकते हैं, लेकिन इस त्रासदी की गंभीरता को लेकर आज भी किसी के मन में कोई संदेह नहीं है। सवाल ये उठता है कि सरकार इतनी बड़ी घटना को छुपाने में कामयाव कैसे हो गई। हिन्दुओं की इस भीषण जेनोसाइड और पलायन की जानकारी देश के बाकि हिस्सों तक कैसे नहीं पहुंची। याद करिये ये वह समय था जब राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद का मुद्दा अपने चरम पर था। धर्मनिर्पेक्ष राजनीति के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण को राजनीतिक का अनिवार्य हिस्सा बनाने की कवायद चल रही थी और ठीक उसी समय छद्म् धर्मनिर्पेक्ष के नाम पर लूटते पिटते मरते हिन्दुओं को जागरूक करने आडवानी के नेतृत्व में बीजेपी का रथ भारत भ्रमण पर निकला था।

इस दौरान छद्म धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर भाजपा को धार्मिक उन्माद और संप्रदायिक पार्टी साबित करने के लिए तत्कालिन सत्ता तंत्र के द्वारा मीडिया का इस्तेमाल किया गया। अखबारों में भाजपा का धार्मिक उन्माद, और संप्रदायिक भाजपा के हेडलाइन के पीछे कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द और पलायन को बड़ी ही चालाकी से छुपा लिया गया। आज की तरह यदि सोशल मीडिया मजबूत होता तो शायद इस त्रासदी को सरकार इतनी आसानी से छुपाने में कामयाव नहीं होती। बल्कि सरकारी साजिश का भी पर्दाफांस होता। ये वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र खतरे में हैं कि दुहाई देकर मोदी सरकार को कटघड़े में खड़ा करती है। दुर्भाग्यवश यदि देश के किसी कोने में किसी मुस्लिम की मौत हो जाय तो इसकी खबर विदेशी मीडिया की सुर्खियां बन जाती है। लेकिन कश्मीर में हिन्दुओँ की पूरी की पूरी समुदाय पलायन कर जाती है, और ये खबर देश के मीडिया में सुर्खियां नहीं बन पाती है।

जाहिर है कि जिस घटना को सरकार ने छुपाना चाहा उसे सरकार छुपाने में कामयाब हो गई। सच तो ये है कि कांग्रेस की राजनीति हमेशा देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के खिलाफ रही है। 1947 से लेकर मौजूदा समय तक हिन्दूओं के प्रति जो उनकी नफरत की राजनीति है उसमें अभी भी कोई बदलाव नहीं आया है। भाजपा के पूर्व महामंत्री संजय जोशी ने कहा कि सिर्फ तीन घंटे के फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में पीड़ित और विस्थापित कश्मीरियों का पूरा सच सामने नहीं लाया जा सकता है। बाबजूद राजनितिक दलों और तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवियों के द्वारा जो प्रतिक्रियाएं सामने आई है वह चिंताजनक है। फिल्म द कश्मीर फाइल्स की आलोचना करने वालों से मेरा निवेदन है कि आंखे मूंद लेने से सूर्यास्त नहीं हो जाता है। अतीत के मुल्यांकन के आधार पर ही तो अतीत के गलतियों कि सुधारा जा सकता है।

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