इस वक्त नाउम्मीदी और मौत के खौफ ने, दुनिया के हर एक इंसान के सीने में डर बैठा दिया है । दुनिया कोरोना के दलदल में हर पल फस्ती ही चली जा रही है। हर दिन लाखों लोग कोरोना के चपेट में आ रहे हैं, ऐसे में कोरोना की वैक्सीन ढूंढने के लिए दुनिया भर में कई ट्रायल चल रहे हैं।

Global vaccine plan may allow rich countries to buy more | World ...


इसी बीच आज हम आपको एक ऐसे वैज्ञानिक की कहानी सुनाएंगे जिसने भारत को दो बार महामारी से बचाया था, जिनका नाम वाल्डेमर हौफकिन था।

हौफकीन का जन्म यूक्रेन के ओडिशा में हुआ था। जबकि यह बात अलग है, कि उनके जीवन के 22 महत्वपूर्ण साल भारत में गुजरे थे। उन्होंने रसिया के सेंट पिट्सबर्ग से अपनी डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की थी, मगर वह कभी प्रोफेसर नहीं बन सके, क्योंकि रूसी साम्राज्य में उस वक्त यहूदियों को इतना बड़ा औहदा नहीं दिया जाता था। इन सबके बाद उन्होंने अपने देश को अलविदा कहना ही ठीक समझा और वह जेनेवा पहुंच गए।

जेनेवा में उन्हें फिजियोलॉजी पढ़ाने का काम तो मिल ही गया लेकिन, उनकी संतुष्टि वहां भी नहीं थी। फिर हौफकीन अपने गुरु लुइस पास्चर के पास पेरिस पहुंचे। पेरिस में वह पास्चर इंस्टिट्यूट में सहायक लाइब्रेरियन का पद तो संभाल ही रहे थे, साथ ही बैक्टीरियोलॉजी पर अपना अध्ययन भी कर रहे थे।

धीरे-धीरे उन्होंने बैक्टीरियोलॉजी में महानता हासिल की और हैजा वैक्सीन बनाने की ओर मुड़ गए। जब उनकी वैक्सीन तैयार हो गई तो उन्होंने मुर्गे और गिनीपिग पर परीक्षण किया, सिर्फ इतना ही नहीं इसके बाद उन्होंने पहले मानव परीक्षण के लिए खुद पर ही वैक्सीन का इस्तेमाल कर लिया। मगर जब उन्होंने इस वैक्सीन को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने का सोचा तो सबसे पहले उनके गुरु लुइस पास्चर ने ही समर्थन नहीं दिया।

इसी बीच हौफकीन की किस्मत चमकने वाली थी। हौफकीन की मुलाकात लॉर्ड फेड्रिक से हुई, जो उस समय  ब्रिटिश राजदूत थे और इसके पहले वह भारत के वाइस रॉय भी रह चुके थे। भारत में सन् 1893 में एक बड़े पैमाने में हैजा फैल चुका था। लॉर्ड फेड्रिक ने हौफकीन को उनकी वैक्सीन भारत में इस्तमाल करने के लिए कहा।

वैक्सीन कामयाब हो इसी उम्मीद के साथ हौफकीन भारत पहुंचे और फिर दुनिया में पहली बार किसी भी वैक्सीन का एक बड़े पैमाने में परीक्षण किया गया। 42 हजार से भी ज्यादा भारतीयों पर यह परीक्षण किया और हौफकीन ने हजारों जान बचा ली।

हौफकीन ने भारत को हैजा महामारी से मुक्त तो कर ही दिया, लेकिन 1896 में भारत में प्लेग महामारी ने दस्तक दी। फिर हौफकीन को मुंबई आमंत्रित किया गया । मुंबई में ग्रांट मेडिकल कॉलेज में उनके लिए प्रयोगशाला बनाई गई। फिर क्या था हौफकीन ने अपना जलवा फिर दिखाया और सिर्फ तीन महीनों में उन्होंने वैक्सीन तैयार कर ली थी। प्लेग की वैक्सीन सबसे पहले हौफकीन ने एक खरगोश पर इस्तमाल की थी, फिर मानव परीक्षण के लिए उन्होंने 154 जेल कैदियों को चुना, उन दिनों जेल कैदियों पर, किसी भी चीज का परीक्षण करना कोई नई बात नहीं थी।

कैदियों पर सफल परीक्षण के बाद देशभर में बड़े पैमाने पर यह वैक्सीन इस्तेमाल किया गया, लेकिन इस बार यह वैक्सीन उतना सफल नहीं रहा , मगर आंकलन करें तो 50 फ़ीसदी मामलों में यह वैक्सीन काम कर गया था। महामारी के दौरान 50 फ़ीसदी लोगों की जान बचाना भी एक बड़ी उपलब्धि है।

इस तरह हौफकीन ने दो बार भारत को महामारी से मुक्त किया था। उनकी सफलताओं के चलते उन्हें महात्मा हौफकीन भी कहा जाने लगा था।
फिर 1925 में उनके सम्मान में ग्रांट हॉस्पिटल का नाम हौफकीन इंस्टिट्यूट में बदल दिया गया।

इतना ही नहीं 1964 में भारतीय डाक ने उन पर एक टिकट भी जारी किया था।

एक बार फिर हम आज कि बात करें, कोरोना महामारी की बात करें, तो पूरी दुनिया कोरोना की वैक्सीन खोजने में जुटी है। ऐसे में हौफकीन उन सभी वैज्ञानिको के लिए एक प्रेरणा साबित हो सकते हैं। 

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