उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव को लेकर सभी पार्टी तैयारियों में जुट गई हैं। लेकिन इन सबके बीच वामपंथी दल किसी भी मोर्चे पर सक्रिय नजर नहीं आ रहा है। मौजूदा वर्तमान स्थिति में राजनीति का खाका तैयार किया जाए तो वामपंथी दलों का सबसे बुरा दौर चल रहा है। राजनीतिक रूप में 34 साल बंगाल सत्ता में रहे वामपंथी दल की हालात ऐसी है कि संसद में उनकी संख्या ना के बराबर हो चुकी है। बता दें कि देश में पहली बार ऐसा है जब वामपंथी दल अपने पहचान के संकट से जूझते दिखाई दे रहें हैं।

क्या है वामपंथी पार्टियों का भविष्य?

राजनीति के पंडित कहते हैं कि  5 अप्रैल 1957 को भारत के किसी राज्य में पहली कम्युनिस्ट सरकार बनी। उसी बीच भारतीय वामपंथी धड़ों के बीच केरल की इस सरकार को याद कर गर्व महसूस किया जाता है। देश में राजनीति मसलन भूमि सुधार, स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाने के मुद्दे और गरीबों के उत्थान और सामाजिक बदलाव के मुद्दों पर वामपंथी दलों ने भारत की राजनीति पर हमेशा अपना प्रभाव छोड़ा है। बता दें कि वामपंथी विचारधारा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को हमेशा विरोध में खड़ें रहें हैं।

आगामी चुनावों का नेतृत्व क्या होगा

पिछली सदी के छठे दशक में जवाहरलाल नेहरू का नेतृत्व देश में रहा था।  उनके शासनकाल में वामपंथी विरोध-सहयोग-समन्वय की नीतियां लगातार चलती रही। कांग्रेस की नीति वामपंथी के झुकाव में हमेशा रही है। लेकिन इन सबके बीच भारत में दो ऐसी घटनाएं रहीं जहां वामपंथी सोच कमजोर होने लगी थी। पहली घटना मंडल कमीशन की रिपोर्ट का लागू होना था दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी का श्री राम मंदिर आंदोलन में रथयात्रा। बता दें कि इन दो बड़ा घटनाओं के असर बिहार और उत्तरप्रदेश के बड़े राज्य पर देखने को मिला। इन दोनों राज्यों में जातीय राजनीति का तेजी से उभार हुआ जिसने वामपंथी नीतियों को कमजोर कर दिया। जानकारी के मुताबिक बिहार वामपंथ के लिए उर्वर भूमि रही है। वहीं देश के दो राज्यों में पिछली सदी के नौवें और दसवें दशक में भयंकर जातीय संघर्ष हुए जिसका परिणाम ये हुआ कि इसका लाभ पिछड़ी जाति के नेताओं को मिल गया। इस दौरान नए उभरे नेताओं ने वामपंथ के आगे अपनी पार्टियों को मजबूत कर लिया।

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साल 2010 के बाद कमजोर हुई पार्टी ?

साल 2010 में राजनीति के परिणाम बदल रहे थे। लोग राजनीति में अपनी आने वाली युवा पीढ़ी को आगे बढ़ाने का काम रहे थे। लेकिन वामपंथी दलों में 60 साल से अधिक उम्र के नेता पार्टी को आगे बढ़ाने का काम कर रहें थे।वहीं वामपंथी दलों की सोच थी उनकी पार्टी का झंडा युवा कमान उठाएं लेकिन शीर्ष स्तर की भागीदारी उनको मंजूर नहीं थी।कई साल पहले पूर्व शीर्ष माओवादी नेता कोबाद गांधी ने लिखा कि उन लोगों को आत्मचिंतन करना होगा जिनकी पकड़ छोटे जंगल तक सीमित रह गई है

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