आजादी से पहले मयमोन सिंह जिले जो आज बांग्लादेश का हिस्सा है। उसमे एक प्रतिष्ठित हिंदू परिवार रहता था, आजादी के पहले भी उस इलाके में मुस्लिम आबादी ज्यादा थी लेकिन वहां सामाजिक और आर्थिक स्तर पर हिंदू आगे थे। जमींदारी हो, डॉक्टर, बैरिस्टर, शिक्षक और सरकारी अधिकारी हर जगह हिंदू समुदाय का वर्चस्व था।

मयमोन सिंह जिले के ईटाई ग्राम में जहां पर आज से दस साल पहले तक बिजली नहीं था, वहां उस वक्त एक कक्षा चार तक का प्रसिद्ध स्कूल था। इस स्कूल को गांव के कुछ परिवारों ने मिलकर स्थापित किया था, उन्हीं प्रतिष्ठित लोगों में थे प्रोदीप कुमार देब के दादाजी दुर्गाचरोण देब।

प्रोदीप कुमार देब ने बताया कि उनकी शिक्षा उसी स्कूल में हुई थी, मुझे आज भी वह दिन याद है। उन्होंने कहा कि हमारी सात पीढ़ियां वहां रहती आई थी, वहां उस समय हमारे पास 25 एकड़ जमीन, बांस के जंगल और कई सारे तलाब थे। हमारे परिवार में शिक्षा को अहम महत्व दिया जाता था इसलिए दादी तीन भाइयों को लेकर मयमोन सिंह शहर में किराए पर रहती थी, मैंने अपनी स्कूल की शिक्षा वहां से पूरी की। इस दौरान हमनें हिंदू समाज पर कई हमले होते देखे, हिंदू परिवारों के घर जला दिए जाते थे लेकिन गांव में हमारे मान -सम्मान के कारण कभी हमपर ऐसा हमला नहीं हुआ।

जब हमारा देश आजाद हुआ उस वक्त मेरे बड़े भाई अरुण कुमार देब ने भारत आने का फैसला लिया और हम पाकिस्तान में रह गए। मैं अपने बड़े भाई से मिलने 4 जनवरी 1949 में भारत आया था उस वक्त हमारा परिवार पाकिस्तान में था जो आज बांग्लादेश है। हम दोनों साल में दुर्गापूजा के समय बांग्लादेश आते थे, हम 1950 तक बांग्लादेश दुर्गापूजा और गर्मियों की छुट्टी मनाने आया करते थे। उसके बाद से हालत बदलते गए, बांग्लादेश में हिंदू परिवारों पर हमले होने लगे, एक साथ कभी भी हिंदुओ पर हमले नहीं हुए लेकिन जहां भी हमले होते थे वहां पे मौजूद हिंदू परिवार विस्थापित करने को मजबूर हो जाते थे।

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1950 में हर तरफ दंग हो रहे थे, उन दंगो से बचने के लिए मेरे परिवार के 22 लोग रातों रात भारत आ गए थे। उस समय बांग्लादेश से भारत के लिए सीधी ट्रेन नहीं आती थी, भारत आने के लिए पहले स्टीमर से नदी पार करनी होती थी उसके बाद दो ट्रेन बदलनी पड़ती थी। 1950 के दंगो के बाद भी मेरे माता पिता भारत नहीं आए थे क्योंकि मेरे परिवार के कई बच्चे उस वक्त वहां पढ़ाई कर रहे थे।

हमारे पास भारत में उस वक्त कोई आय का स्रोत नहीं था इसलिए मेरे माता-पिता, हेमोंतो कुमार देब और चपोला देब मयमोन सिंह जिले में ही रह रहे थे। जब वह वहां थे उस वक्त भी कई हमले हुए, लेकिन मेरा परिवार सुरक्षित था। 1961 में मैं और मेरे बड़े भाई माता पिता को लेकर भारत आ गए थे और हमने अपने जमीन की जिम्मेदारी योगेश नाथ को सौंप दी थी, कुछ वक्त बाद सुनने में आया कि योगेश नाथ की किसी ने गोली मारकर हत्या कर दी। उसके बाद हमारी जमीन, मकान और तालाबों पर कब्जा कर लिया गया।

प्रोदीप कुमार देब जिन्होंने इंजीनियरिंग करने के बाद अपनी जिंदगी के तीस साल यूएस में व्यतीत किए। वह एडीबी प्रोजेक्ट का हिस्सा बने जिसे बांग्लादेश में 51 जिलों में इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट का कार्य सौंपा गया था, उन्होंने ढ़ाई सालों तक वहां काम किया। वह काम के दौरान अपने गांव भी गए। उन्होंने कहा मैं जिस बांग्लादेश को जनता था वह धर्मनिरपेक्ष था लेकिन पिछले 60 सालों में सब बदल गया है।

उनके परिवार के सहयोग से बनाया गया प्राइमरी स्कूल अब हाई स्कूल बन चुका है, उनका छोटा सा गांव अब तहसील बन चुका है। उनका जिला अब देश के प्रमुख शहरों में से एक है, मुझे अपने गांव जाकर वहां के लोगों को यकीन दिलाना पड़ा की मैं अपनी जमीन वापस लेने नहीं आया हूं। एक चीज जिसने मुझे सुकून दिया वह था दुर्गा-काली का मंदिर वह 2012 तक सुरक्षित था, अब वह वहां मौजूद है या उसे तोड़ दिया गया है यह बता पाना मुश्किल है

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