पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी का राज शुरू हो चुका है। चन्नी दलित समाज से आते हैं पंजाब में पहली बार दलित मुख्यमंत्री की ताजपोशी हुई है। सचमुच ये कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक है। पंजाब में 32 फीसदी आबादी दलित है। 117 में से 34 सीटें आरक्षित हैं। सामान्य सीटों पर भी प्रभाव है। दोआबा क्षेत्र तो गढ़ है। वोट बंटने के बावजूद किंग मेकर की भूमिका में रहे हैं। कांग्रेस पहली पार्टी हो गई है, जिसने पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया। भले यह साढ़े 5 महीने के लिए ही है। आजादी के बाद से पंजाब में 15 मुख्यमंत्री चेहरों में कभी भी दलित चेहरे को नेतृत्व का मौका नहीं मिला। हालांकि दलित राजनीति को शुरुवात पंजाब में 80 के दशक में शुरू हो गई थी। बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशी राम पंजाब के होशियारपुर ज़िले से थे। उन्होंने यहीं से अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत की थी। कांशी राम ने पंजाब में दलितों को एकजुट करने के लिए काफ़ी मेहनत की और उनके बीच राजनैतिक जागरूकता फैलाने के लिए भी काफ़ी प्रयास किया। इसका नतीजा ये हुआ कि वर्ष 1996 में उन्हें जीत हासिल हुई। उस समय भी उनकी पार्टी का गठबंधन शिरोमणि अकाली दल के साथ था। लेकिन 1997 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को 7.5% प्रतिशत मत ही मिल पाए थे जो वर्ष 2017 में हुए विधानसभा के चुनावों में सिमटकर 1.5% पर आ गए।

32% पर 25% का सियासी दबदबा

पंजाब में देश की सबसे अधिक दलित आबादी रहती है। जिनकी संख्या 32 फीसदी है। फिर भी 25 फीसदी जाट सिक्खों का राजनीति में दबदबा है। ऐसा क्यों एक निजी चैनल से बातचीत में मोहाली में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार विपिन पब्बी ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुसूचित जाति की आबादी भी बटी हुई है। उनका कहना है कि जहां आबादी सिख दलित और हिंदू दलितों के बीच बटी हुई है वहां सिख हिंदू दलितों के बीच भी कई समाज हैं जो अपनी अलग अलग विचारधारा रखते हैं। पब्बी कहते हैं, शायद यही वजह है कि इतनी मेहनत के बावजूद कांशी राम पंजाब में दलितों को एकजुट नहीं कर पाए और उन्होंने पंजाब से बहार निकलकर उत्तर प्रदेश और देश के अन्य इलाकों में दलितों के बीच काम करना शुरू किया। वहीं पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रोंकी राम के अनुसार कांशी राम ने पंजाब के विभिन्न दलित समाज के लोगों के बीच सामंजस्य और गठजोड़ बनाने की कोशिश ज़रूर की मगर वह कामयाब नहीं हो सके जबकि उत्तर प्रदेश में उनकी उत्तराधिकारी मायावती को इसमें अभूतपूर्व कामियाबी मिली। उन्होंने कहा, बहुजन समाज पार्टी का सबसे बेहतर प्रदर्शन वर्ष 1992 में रहा जब उसे 16 प्रतिशत मत मिले। लेकिन समय के साथ पार्टी का प्रभाव कम होता चला गया और वो सिमटकर पंजाब के दोआबा क्षेत्र के कुछ इलाकों में रह गयी।

कांग्रेस को क्या फायदा ?

कांशीराम के पंजाब में सक्रिय रहने तक यहां बहुजन समाज पार्टी मजबूत थी। वे चाहते रहे कि दलित सीएम बने। कांग्रेस ने यह संदेश दिया है कि उसने कांशीराम का सपना पूरा किया है। उत्तर प्रदेश में भी वह इसे भुना सकती है। सामाजिक प्रतिनिधित्व देने में वह अन्य पार्टियों से आगे निकल गई है। हालांकि यह उसकी सियासी मजबूरी भी है, क्योंकि सिरोमणी अकाली दल दलित डिप्टी सीएम देने का ऐलान कर चुकी थी और भाजपा भी दलित मुख्यमंत्री देने की बात कह चुकी है। कांग्रेस ने सिखों के एक बड़े तबके को नाराज करने का जोखिम भी लिया है, जिसकी भरपाई डिप्टी सीएम बनाकर करने की कोशिश की है। कांग्रेस के इस दांव से सभी पार्टियों को धक्का लगा है। पंजाब में भाजपा एकमात्र पार्टी थी, जिसने यह कहा था कि वह पहला दलित सीएम का चेहरा देगी। वह चूक गई। नाम ही आगे नहीं किया, जबकि वह इस बार सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी में है। अकाली दल ने बसपा से गठबंधन कर डिप्टी सीएम बनाने का वादा किया है। कांग्रेस की इस चाल ने उसे भी फंसा दिया है। वह जितना हासिल करना चाहती थी, उसको पाने के लिए अब ज्यादा मोहरे इस्तेमाल करने पड़ेंगे। आम आदमी पार्टी की भी नजर इस वोट बैंक पर थी। पिछले चुनाव में उसने 9 आरक्षित सीटें जीती थीं। वह मुख्यमंत्री के लिए दलित चेहरे का ऐलान कर चुकी है। ऐसे में अब दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए उसके पास सीमित विकल्प बचे हैं।

देश का पहला दलित सीएम ?

बिहार की सत्ता की कमान संभालने वाले भोला पासवान देश में पहले दलित मुख्यमंत्री थे। उन्होंने एक बार नहीं बल्कि तीन बार मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता की बागडोर संभाली थी। भोला पासवान के बाद बिहार को जनता दल के शासन के दौर में राम सुंदर दास के तौर पर दलित मुख्यमंत्री मिला। वहीं, कांशीराम ने दलित राजनीति का ऐसा सियासी प्रयोग किया कि बसपा ने उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ दस्तक दी और मायावती ने एक−दो बार नहीं बल्कि चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। यूपी में दलित सीएम के तौर पर मायावती 1995 में पहली बार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं तो फिर सूबे में दलित वोटों पर लंबे समय तक उनका एकछत्र राज कायम रहा। महाराष्ट्र में कांग्रेस ने सुशील कुमार शिंदे के रूप में दलित मुख्यमंत्री दिया था जबकि राजस्थान में 1980 में जगन्नाथ पहड़िया के रूप में कांग्रेस ने दलित मुख्यमंत्री दिया था। इसके अलावा तमिलनाडु में के. कामराज को कांग्रेस ने तीन बार मुख्यमंत्री बनाया। जीतनराम मांझी 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटे थे। उनके बाद से देश के किसी भी राज्य में दलित मुख्यमंत्री नहीं बना। ऐसे में पंजाब के सियासी झगड़े के बीच कांग्रेस ने अपनी राजनीति को नए सामाजिक समीकरण का स्वरूप देने का यह फार्मूला निकाला है।

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