ओडिशा की कतेनपाडर नाम का एक ऐसा गांव जिसे दुनिया के मानचित्र पर 1980 के दशक तक अपनी गरीबी के चलते मरते हुए जानों के लिए जानती थी आज यहां की तश्वीर विश्व को आकर्षित करने पर आमादा है। कालाहांडी जिले का कतेनपाडर नाम का यह गांव 1980 के दशक में भुखमरी और इससे होने वाली मौतों के लिए जाना जाता था। लेकिन, आज कालाहांडी जिले ने दुनिया के सामने एक नई तस्वीर पेश की है। कतेनपाडर गांव आज एक ‘आदर्श गांव’ बन गया है और गांव की बदली हुई तस्वीर के साथ ही यह गांव महिला सशक्तीकरण का उदाहरण भी है। मशरूम की खेती ने यहां के लोगों को सामाजिक विकास एवं व्यक्तिगत उन्नति का रास्ता बनाने में मदद की है।

दरअसल में इस गांव की तरक्की की कहानी “मशरूम मां” से होकर गुजरती है। “मशरूम मां” नाम से ख्याति प्राप्त कर चुकी 45 वर्षीय आदिवासी महिला बनदेई माझी ने अपनी दृढ़ संकल्पता के बदौलत अपनी और गांव वालों की जिंदगी बदल दी है। जिले के मॉडल गांव की कहानी उस वक्त शुरू हुई जब कतेनपाडर गांव की 45 वर्षीय महिला बनदेई मांक्षी ने 2007 से 2008 के दौरान नाबार्ड द्वारा आयोजित शिविर में प्रशिक्षण लेने के बाद अपने परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए धान के पुआल से मशरूम की खेती की शुरुआत की।

यह भी पढ़ें: बॉलीवुड सेलेब्स से लेकर खेल जगत तक ने भारतीय पुरुष हॉकी टीम को ब्रॉन्ज मेडल जीतने पर दी बधाई

बानादेई की अच्‍छी होती आर्थिक स्थिति से गांववालों को प्रोत्‍साहन मिला। अब गांव के 50 से ज्‍यादा घर मशरूम की खेती करने लगे हैं और साल में 50,000 व उससे अधिक रुपए कमा लेते हैं। बानादेई अब एक मास्‍टर ट्रेनर के तौर पर कार्य करते हुए वो पड़ोस के 10 गांवों की मह‍िलाओं को भी मशरूम की खेती करने की ट्रेनिंग देने लगी हैं। हाल ही में नाबार्ड ने उन्‍हें मशरूम की खेती और महिला सशक्‍तीकरण की वजह से पुरस्‍कृत भी किया था। शानदार प्रगति की पटकथा को लेकर “मशरूम मां”यानी बानादेई का कहना है कि मशरूम और सब्जियों की खेती ने उनकी और गांव वालों की जिंदगी बदल दी।

Share.

Rupesh Ranjan is an Indian journalist. These days he is working as a Independent journalist. He has worked as a sub-editor in News Nation. Apart from this, he has experience of working in many national news channels.

Exit mobile version